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नवम परिच्छेद जिनस्य पूजनं हंति, प्रातः पापं निशाभवम् । आजन्मविहितं मध्ये सप्तजन्मकृतं निशि ॥ जलाहारौषधस्वापविद्योत्सर्गकृषिकिया। सत्फलाः स्वस्वकाले स्युरेवं पूजा जिनेवरे ।।
तथा
जिणपूअणं तिसंझं कुणमाणो सोहए य संमत्तं । तित्थयरनामगुत्तं, पावइ सेणिअनरिंदुव ॥ जो पूएइ तिसंझं, जिणिदरायं सया विगयदोस । सो तईय भवे सिज्झइ, अहवा सत्तडमे जम्मे ॥ मवायरेण भयवं, पूहजंतोचि देवनाहेहि । नो होइ पूहओ खलु, जम्हा गंतगुणो भयवं ॥३॥ यह गाथा सुगम हैं।
तथा देवपूजादिक में हृदय में बहुमान और पूर्ण भक्ति भाव रक्खे । तथा जिनमत में चार प्रकार का अनुष्ठान कहा है। एक प्रीति सहित, दूसरा भक्ति सहित, तीसरा वचनप्रधान, अरु चौथा असंग अनुष्ठान । तीन में जिस के प्रीति का रस बढ़े, अरु ऋजु भद्रक स्वभाववाला होवे; जैसे वालकों में रतन को देख कर प्रीति होती है, ऐसी जिस को प्रीति होवे, सो प्रीति अनुष्ठान है। तथा बहुमान संयुक्त