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________________ ૨૮૨ जैन तत्वादर्श राजपत्नी गुरो: पत्नी, पत्नीमाता तथैव च । स्वमाता चोपमाता च, पंचैता मातरः स्मृताः ॥ २ ॥ सहोदरः सहाध्यायी, मित्रं वा रोगपालकः । मार्गे वाक्यसखा यश्च, पंचैते भ्रातरः स्मृताः ॥ ३ ॥ इन का अर्थ सुगम है । तथा अपने भाई को धर्मकार्य . में अवश्य प्रेरणा करे। भाई की तरे मित्र के साथ भी उचिताचरण करे | व्यवहार ४. अथ स्त्री के साथ उचित कहते हैं - स्त्री विवाहिता के साथ स्नेह संयुक्त वचन बोल के स्त्री स्त्री से उचित को अभिमुख करे । वल्लभ और स्नेह संयुक्त वचन, निश्चय प्रेम का जीवन है । तथा स्त्री पासों स्नान करावे, अपना स्नान पगचंपी प्रमुख में स्त्री प्रति प्रवर्त्तावे । जब स्त्री विश्वास पा करके सच्चा स्नेह घरेगी, तब कदापि बुरा आचरण न करेगी । तथा देश काल कुटुंब के अनुसार धनादि उचित वस्त्राभरण देवे; क्योंकि अलंकार संयुक्त स्त्री लक्ष्मी की वृद्धि करती है । तथा स्त्री को रात्रि में कहीं जाने न देवे, तथा कुशील पुरुष की अरु पाखण्डी भगत योगी योगिनियों की संगति न करने देवे । स्त्री को घर के काम में जोड़ देवे । तथा राजमार्ग में वेश्या के पाड़े में न जाने देवे ।
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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