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________________ नवम परिच्छेद ૧૮૩ यदि धर्मकृत्य पडिकमणा, सामायिकादिक करने के वास्ते धर्मशाला - उपाश्रय में जावे, तदा माता वहिनादि सुशील धर्मिणी स्त्रियों की टोली में जाचे आवे । घर का काम, दान देना, सगे सम्बन्धी का सम्मान करना, रसोई का करना, यह सब करे । तथा प्रभात समय में शय्या से उठावे, घर प्रमार्जन करे, दूध के बर्तन धोवे, चौकादि चुल्ले की क्रिया करे, तथा भांडे घोने, अन्न पीसना, गौ, मैस दोहनी, दही बिलोना, रसोई करनी, खानेवालों को परोसना, जूठे वर्त्तन शुचि करने । सासु, भरतार, ननद, देवर, इतनों का विनय करना, इत्यादि पूर्वोक्त कामों में स्त्री को जोड़े अर्थात् काम करने में तत्पर करे । जेकर स्त्री को पूर्वोक कामों में न जोड़े, तब स्त्री चपलता से विकार को प्राप्त हो जाती है। काम में लगे रहने से स्त्री की रक्षा, गोपना होती है । तथा भरतार स्त्री के सन्मुख देखे, बोलावे, गुणकीर्त्तन करे, घन, वस्त्र, आभूषण देवे। जिस तरे स्त्री कहे, उस तरे करे । स्त्री को दूर न छोड़े। तब उस स्त्री का भरतार के ऊपर अत्यंत प्रेम हो जाता है, तथा स्त्री को न देखने से, अति देखने से, देख कर न बुलाने से, अपमान करने से, अहंकार करने से, इन पूर्वोक्त बातों से प्रेम टूट जाता है । तथा भरतार बहुत परदेश में रहे, तब त्री कदाचित् अनुचित काम कर लेवे इस वास्ते बहुत काल परदेश में
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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