________________ एकादश परिच्छेद 423 वडवृक्ष की जटा की तरे तो धरती से जटा लग रही है, और पगों में सर्पो की बंबियां वन गई हैं, ऐसे हाल में जमदग्नि को देखा। तब उन दोनों देवताओं ने देवमाया से जमदग्नि की दाढी में घोंसला बना कर, चिडा और चिडी बनकर घोंसले में दोनों बैठ गये। पीछे चिड़ा चिड़ी से कहने लगा कि, मैं हिमवंत पर्वत में जाऊंगा। तब चिड़ी कहने लगी कि, मैं तुझे कभी न जाने दूंगा। क्योंकि तू तहां जाके किसी ओर चिड़ी से आसक्त हो जावेगा। फिर मेरा क्या हाल होवेगा ! तव चिड़ा कहने लगा कि, जो मै फिर कर न आऊं, तो मुझे गोधात का पाप लगे। तव चिडी कहने लगी कि मै तेरी शपथ को नहीं मानती। हां, जो मै सपथसौगंद कहूं वो तू करे, तो मै जाने दूंगी। तब चिडेने कहा कि तू कह दे। तब चिड़ी कहने लगी कि, जो तू किसी चिड़ी से यारी करे तो इस जमदग्नि का जो पाप है, सो तुझ को लगे। चिड़ा चिड़ी का ऐसा वचन सुन के जमदग्नि को क्रोध उत्पन्न हुआ। तब दोनों हाथों से चिड़ा चिड़ी को पकड़ लिया, और कहा कि मैं तो बड़ा दुष्कर तप जो पापों का नाश करनेवाला है, सो कर रहा हूं तो फिर मेरे में ऐसा कौन सा पाप शेष रह गया है कि, जिस से तुम मुझे पापी वतलाते हो ! तब चिड़ा जमदग्नि को कहता है, हे ऋषि ! तू हमारे ऊपर कोप मत कर, क्योंकि हमने झूठ नहीं कहा है। और जो तेरे को अपने तप का घमण्ड है, सो तप