SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नवम परिच्छेद ववहारसुद्धि देसाइविरुडचायउचिअचरणेहिं । तो कुणइ अत्थचिंतं निवाहितो नियं धम्म ।। अर्थ:-व्यापार की शुद्धि, देगादि विरुद्ध का त्याग, उचित आचरण, इन तीनों प्रकार से धन उपार्जन करने की चिंता करे, अरु अपने धर्म का भी निर्वाह करे। क्योंकि ऐसा कोई कार्य नहीं है, जो धन से सिद्ध न होवे । तिस वास्ते बुद्धिमान् धन के उपार्जन में यल करे । यदाह नहि तद्विद्यते किंचिद्यदर्थेन न सिद्ध्यति । यत्नेन मतिमांस्तम्मादर्थमेकं प्रसाधयेत् ।। इहा जो अर्थचिंता है, सो अनुवादरूप है, क्योंकि धन के उपार्जन की चिंता लोक में स्वतः ही सिद्ध है, कुछ शासकार के उपदेश से नहीं । अरु " धर्म निर्वाहयन् " यह जो कहना है, सो विधेय-करने योग्य है, क्योंकि इस की आगे प्राप्ति नहीं है। शास्त्र का जो उपदेश है, सो अप्राप्त अर्थ की प्राप्ति के वास्ते है, शेष सर्व अनुवादादि रूप है। अव आजीविका चलाने के प्रकार कहते हैं-आजीविका सात प्रकार से होती है-१. व्यापार करने आजोविका के से, २. विद्या से, ३. खेती करने से, ४. साधन पशुओं के पालने से, ५. कारीगरी करने से, ६. नौकरी करने से, ७. भीख मांगने से।
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy