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जैनतस्वादर्श
तिन में १ वाणिज्य करने से वणिक् लोकों की आजीविका है, २. विद्या से वैद्यादिकों की आजीविका है, ३. खेती करने से कौटुम्बिकादिकों की है, ४. पशु पालने से गोपाल अजापालादिकों की है, ५. शिल्प करके चितारादिकों की है, ६. नौकरी करने से सिपाही लोकों की है, ७. मिक्षा से मांग खानेवालों की आजीविका है ।
तिन में – १. वाणिज्य सो धान्य, घृत, तैल, कार्पास, सूत्र, वस्त्र, धातु, मणि, मोती, रुपया, सोनैया प्रमुख जितनी जात का करयाणा है, सो सर्व व्यापार है । अरु जो व्याजु देना है, सो भी व्यापार है ।
धर्म,
२. विद्या भी औषधि, रस, रसायन, चूर्ण, अंजनादि, वास्तुक शास्त्र, पंखी का शकुन, भूत भविष्यादि निमित्त, सामुद्रिक, चूड़ामणि, जवाहिर परखने का शास्त्र, अर्थ, काम, ज्योतिष, तर्कादि भेद से अनेक प्रकार की है । इस वैद्यविद्या में अतारपना, पंसारीपना करना ठीक नहीं, क्योंकि इस में प्रायः दुर्ध्यान होने से बहुत गुण नहीं दीखता है । क्योंकि जिस को जिस से लाभ होता है, वो उसी बात को चाहता है । तदुक्तं -
विग्रहमिच्छंति भटा वैद्याथ व्याधिपीडितं लोकम् | मृतक बहुलं विप्राः, क्षेमं सुभिक्षं च निर्ग्रथाः ।।
अर्थ :- सुभट संग्राम चाहते हैं, वैध रोगपीडित लोगों