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नवम परिच्छेद
२५७ को चाहते हैं, अरु ब्राह्मण बहुत लोगों का मरण चाहते हैं, तथा निरुपद्रव सुकाल को साधु निग्रंथ चाहते हैं। परन्तु जो वैद्य अत्यंत लोभी होवे, धन लेने के वास्ते उलटी
औषधि जान के देवे, जिसके मन में दया न होवे, जो त्यागी साधुओं की औषधि न करे, जो दरिद्री, अनाथादि लोगों को मरते जान के भी धन खोस लेवे, मांस मघादि अभक्ष्य वस्तु का मक्षण करना बतावे, झूठी औषधि बना के लोगों को ठगे, वो वैद्यविद्या नरक की देनेवाली हैसो न करनी चाहिये । अरु जो वैद्य सत् प्रकृतिवाला होवे, लोभी न होवे, पूर्वोक्त दूषण रहित होवे, परोपकारी होवे, ऐसे की वैद्यविद्या श्रीऋषमदेवजी के जीव जीवानंद वैद्य की तरे दोनों भवों में गुण देनेवाली है। ऐसी वैद्य. विधा से आजीविका करे, तो अच्छा है।
३. खेती-सो तीन तरे से होती है, एक मेघ से, दूसरी कूप, नहरादि से, तीसरी दोनों से ।
४. पशु पालकपना-सो गौ, महिष, बकरी, ऊंट, बैल, घोड़ा, हाथी इनको बेच कर आजीविका करनी।
खेती अरु पशुपालन, यह दोनों काम विवेकी को करने उचित नहीं। जेकर इनके करे बिना निर्वाह न होवे, तदा वीज बोने का काल जाने, भूमि की सरस नीरसता को जाने, अरु जो खेत पहिले वाहे बिना बोया न जावे, दूसरा रस्ते का क्षेत्र, यह दोनों क्षेत्र को वर्ने, तो धन की वृद्धि