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जैनतत्त्वादर्श
होवे । अरु जो पशुपाल्यपना करे, तो पशुओं के ऊपर निर्दय न होवे, पशु का कोई अवयव न छेदे । इसी तरे पशुपालकपना करे |
काल में न्यूनाधिक प्रथम सौ तरें का
वास्ते सौ ही लिखा
५. शिल्प आजीविका है । सो शिल्प सौ तरे का है। मूल शिल्प तो पांच हैं - १. कुम्भार, २. लोहार, ३ . चितारा, ४. बनकर अर्थात् बुननेवाला, ५. नाई । इन पांचों के वीस वीस मेद हैं । यद्यपि इस कभी होवेंगे, परन्तु श्री ऋषभदेवजी ने शिल्प ही प्रजा को सिखलाया था, इस है । जो सांसारिक विद्या है, सो सर्व कोई कर्म में है । शिल्प गुरु के उपदेश से स्वयमेव ही आ जाता है । यह प्रकार का है - १. उत्तम बुद्धि से धन कमाता है, हाथों से कमावे, ३. अधम पगों से मस्तक से बोझा ढो कर कमावे |
शिल्प में आता है,
I
अरु कर्म
कर्म भी सामान्य से चार
२. मध्यम
हैं, कोई
कमावे, ४ अधमाधम
·
६. सेवा करके आजीविका करे । सो सेवा राजा की, मन्त्री की, सेठ की, सामान्य लोगों की नौकरी, यह चार प्रकार से है। प्रथम तो नौकरी किसी की भी न करनी चाहिये, क्योंकि नौकर परवश हो जाता है । जेकर निर्वाह न होवे, तदा नौकरी भी करे, परन्तु जिस की नौकरी करे, 'उसमें यह कहे हुए गुण होवें, तो उसके वहां नौकर