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________________ नवम परिच्छेद २५१ रहे । जो पुरुष कानों का दुर्बल न होवे, सूरमा होवे, कृतज्ञ होवे, सात्विक, गम्भीर, घीर, उदार, शीलवान्, गुणों का रागी होवे; उसकी नौकरी करे। अरु जो क्रूर प्रकृतिबाला होवे, कुव्यसनी होवे, लोभी होवे, चतुर न होवे, सदा रोगी रहे, मूर्ख होवे, अन्यायी होवे, उसकी नौकरी न करे; क्योंकि कामंदकीय नीतिशास्त्र में लिखा है कि, जिस राजा की वृद्ध पुरुषों ने सेवा करी होवे, सो राजा अच्छा है । स्वामी को भी चाहिये कि जैसा सेवक होवे, तैसा उसका सन्मान करे । सेवक भी थके हुए, भूखे हुए, क्रोध में हुए, व्याकुल होये, तृपावंत होये, शयन करने लगे, दूसरे के अर्ज करते हुये, इन अवस्थाओं में स्वामी को विनति न करे । तथा राजा की माता, राजा की रानी, राजकुमार, मुख्य मंत्री, अदालती, राज का दरवान, इनके साथ राजा की दरें वर्त्तना चाहिये। इस रीति से प्रवर्चे, तो धन की प्राप्ति दुर्लभ नहीं । यथा इक्षुक्षेत्रं समुद्रश्य, योनिपोषणमेव च । प्रसादो भूभुजां चैव, सद्योधनंति दरिद्रताम् ॥ १ ॥ निंदंतु मानिनः सेवां, राजादीनां सुखैषिणः । स्वजनास्वजनोद्धारसंहारौ न तया विना ॥ २ ॥ 1 मन्त्री, श्रेष्ठी, सेनानी इत्यादि व्यापार भी सर्व नृमसेवा
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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