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अष्टम परिच्छेद
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अर्थः- मोदकादि, फलादि, यद्यपि प्राशुक अर्थात् अचेतन भी हैं, तो भी रात को न खाने चाहियें; क्योंकि सूक्ष्म जीव - कुंवादि देखे नही जाते हैं । केवली भी जिन को सदा सर्व कुछ दीखता है, रात्रि में भोजन नही करते हैं । केवली सूक्ष्म जीवों की रक्षा के वास्ते अरु अशुद्ध व्यवहार को दूर करने के वास्ते रात्रि को नहीं खाते हैं । यद्यपि दीवे के चांदने से कीड़ी प्रमुख दीख जाती है, तो भी मूलगुण की विराधना को टालने के वास्ते रात्रिभोजन अनाचीर्ण है ।
अब लौकिक मतवालों की सम्मति देकर रात्रिभोजन का निषेध करते हैं:
धर्मविनैव भुंजीत, कदाचन दिनात्यये । बाह्या अपि निशामोज्यं, यदभोज्यं प्रचक्षते ॥
[ यो० शा० प्र०३, श्लो० ५४ ] अर्थ:- श्रुत धर्म का जाननेवाला कदाचित् रात्रिभोजन न करे, क्योंकि जो जिनशासन से बाहिर के मतवाले हैं, वे भी रात्रिभोजन को अभक्ष्य कहते हैं:
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त्रयीतेजोमयो भानुरिति वेदविदो विदुः । तत्करैः पूतमखिलं शुभं कर्म समाचरेत् ॥
[ यो० शा० प्र० ३, श्लो० ५५]
अर्थ:- ऋग्, यजु, साम लक्षण तीनों वेद, तिन का तेज