________________
१०४
जैनतत्वादर्श विलग्नश्च गले वाला, स्वरभङ्गाय जायते । इत्यादयो दृष्टदोषाः, सर्वेषां निशिभोजने ॥
[यो० शा० प्र० ३, श्लो० ५०-५२] अर्थ:-~कीड़ी अन्नादि में खाई जावे, तो बुद्धि को मंद करती है, तथा यूका-जू खाने से जलोदर करती है। मक्षी वमन करती है, मकड़ी कुष्ठ रोग करती है। अरु बेरी प्रमुख का कांटा तथा काष्ठ का टुकड़ा गले में पीड़ा करता है; तथा बटेरे आदि के व्यञ्जन में जेकर बिच्छु खाया जावे तो तालु को बींधता है, इत्यादि रात्रिभोजन करने में दृष्ट दोष-सर्व लोगों के देखने में आते हैं। तथा रात्रिभोजन करने पर अवश्य पाक अर्थात् रसोई रात्रि को करनी पड़ेगी। तिस में अवश्य षट्काय के जीवों का वध होवेगा। भाजन घोने से जलगत जीवों का विनाश होता है। जल गेरने से भूमि में कुंथु, कीड़ा प्रमुख जीवों का घात होता है। इस वास्ते जिस को जीव रक्षण की आकांक्षा होवे, वो रात्रिभोजन न करे।
जहां अन्न भी रांधना न पड़े, भाजन भी धोने न पड़े ऐसे जो वने बनाये लड्डू, खजूर, द्राक्षादि भक्ष्य है। तिन के खाने में क्या दोष है ! सो कहते हैं
नाप्रेक्ष्यसूक्ष्मजंतूनि, निश्यद्यात्प्राशुकान्यपि । अप्युधत्केवलज्ञानैर्नादृतं यनिशासनम् ।।
[ यो० शा० प्र० ३, श्लो० ५३ ]