SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टम परिच्छेद १०३ तमस्काय जीव हैं, उत्पन्न होते हैं। तथा आश्रित जीव भी बहुत होते हैं। तथा रात्रि में उचित अनुचित वस्तु का मेल संमेल हो जाता है । तथा रात्रिभोजन करने से प्रसंग दोष बहुत लगते हैं। सो किस तरे! कि जब रात्रि को खावेगा तब नित्य रसोई भी रात्रि को करनी पड़ेगी, तिस में जीवों का अवश्य संहार होवेगा। इस प्रकार करने से श्रावक के कुल का आचार भ्रष्ट हो जाता है। सूक्ष्म त्रस जीव नज़र में नहीं आते हैं। कदापि दीख भी जावें तो भी यल नहीं होता। जब अग्नि बलती है, तब पास की भीत में रात्रि को जो जीव आश्रित हैं, वो तप्त से आकुल व्याकुल होकर अग्नि में गिर पडते हैं। सादिकों के मुख से जेकर भोजन में लाल गिरे, तव कुटुम्ब का तथा अपनी आत्मा का विनाश होवेगा। तथा पतंगिये प्रमुख पड़ेगे। छत में अरु छप्पर में रात्रि को सर्प, किरली, छपकली, मकड़ी, मच्छरादि बहुत जीव वसते है। जेकर ये जीव भोजन में खाये जावें तो भारी रोग उत्पन्न हो जाते हैं । यदुक्तं योगशास्त्रे मेधां पिपीलिका हंति, यूका कुर्याजलोदरम् । कुरुते मक्षिका वांति, कुष्टरोगं च कोलिका ।। कंटको दारुखण्डं च, वितनोति गलव्यथाम् । व्यञ्जनांतर्निपतितस्तालु विध्यति वृश्चिकः ॥
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy