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________________ १०६ जैनतत्वादर्श जिस में है सो सूर्य है, 'त्रयीतनु' ऐसा सूर्य का नाम है। ऐसा वेदों के जानने वाले जानते हैं । तिस सूर्य की किरणों करके पूत-पवित्र संपूर्ण शुभ कर्म अंगीकार करे । जब सूर्यो. दय न होवे, तब शुभ कर्म न करे। तिन शुभ कर्मों का नाम लिखते हैं. नैवाहूतिर्न च स्नानं, न श्राद्धं देवतार्चनम् । दानं वा विहितं रात्रौ, भोजनं तु विशेषतः ॥ [यो० शा० प्र० ३, श्लो० ५६] अर्थः-आहुति-अग्नि में घृतादि प्रक्षेप करना, स्नान-अंग प्रत्यंग का प्रक्षाल करना, श्राद्ध-पितृकर्म, देवपूजा, दान देना और भोजन तो विशेष करके रात्रि में न करना । तथा परमत के यह भी दो श्लोक हैं: देवैस्तु भुक्तं पूर्वाहे, मध्याह्ने ऋषिभिस्तथा। अपराले तु पितृभिः, सायाह्ने दैत्यदानवैः ॥१॥ संध्यायां यक्षरक्षोभिः, सदा मुक्तं कुलोद्वह ! । सर्ववेला व्यतिकम्य, रात्रौ भुक्तमभोजनम् ॥ २॥ [यो० शा० प्र० ३, ५८, ५९] अर्थ:-सवेरे तो देवता भोजन करते हैं, मध्याह्न अर्थात् दो पहर दिन चढ़े ऋषि भोजन करते हैं, अपराह अर्थात्
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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