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अष्टम परिच्छेद चौथा मैथुन त्याग व्रत कहते हैं-सो मैथुन सेवने का
त्याग करना है । इस व्रत के दो भेद मैथुनविरमण व्रत हैं, एक द्रव्य मैथुनत्याग, दूसरा भाव मैथुन
त्याग । उसमें द्रव्य मैथुन तो परस्त्री तथा परपुरुष के साथ संगम करना है। सो पुरुष स्त्री का त्याग करे, अरु स्त्री पुरुष का त्याग करे, रतिक्रीडा-कामसेवन का त्याग करे तिस को द्रव्य ब्रह्मचारी तथा व्यवहार ब्रह्मचारी कहिये । भाव मैथुन-सो एक चेतन पुरुष के विषयविलास परपरिणतिरूप, तथा तृष्णा ममता रूप, इत्यादि कुवासना, सो निश्चय परस्त्री को मिलना तिस के साथ लालन पालनरूप कामविलास करना, सो भावमैथुन जानना । तिस का जब जिनवाणी के उपदेश से, तथा गुरुकी हितशिक्षा से ज्ञान हुआ, तब जातिहीन जान करके अनागत काल में महा दुःखदायी जान कर पूर्वकाल में इस की संगत से अनंत जन्म मरण का दुःख पाया, इस वास्ते इस विजातीय स्त्री को तजना ठीक है। अरु मेरी जो स्वजाति स्त्री, परम भक्त उत्तम, सुकुलीन, समतारूप सुन्दरी, तिस का संग करना ठीक है । अरु विभावपरिणतिरूप परस्त्री ने मेरी सर्व विभूति हर लीनी है। तो अब सद्गुरु की सहायता से ए दुष्ट परिणाम रूप जो सी, संग लगी हुई थी, तिस का थोड़ा थोड़ा निग्रह करूं-त्यागने का भाव आदरूं, जिस से शुद्धस्वभाव घटरूप घर में आजावे, तथा स्वरूप तेज की वृद्धि