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________________ ६६ जैन तत्वादर्श होवे । ऐसी समझ पा करके जो परपरिणति में मग्नता त्यागे, और कर्म के उदय ने व्यापक न होवे, शुद्ध चेतना का संगी होवे, सो भाव मैथुन का त्यागी कहिये । इहां द्रव्यमैथुन के त्यागी तो षड् दर्शन में मिल सकते हैं, परन्तु भावमैथुन का त्यागी तो श्रीजिनवाणी सुनने से भेदज्ञान जव घट में प्रगट होता है, तब भवपरिणति से सहज उदासीनता रूप भाव मैथुन का त्यागी जैनमत में ही होता है । इहां स्थूल परस्त्रीगमनविरमण व्रत - सो परस्त्री का त्याग करना । परपुरुष की विवाहिता स्त्री, तथा पर की रक्खी हुई स्त्री, तिल के साथ अनाचार न सेवना, ऐसा जो प्रत्याख्यान करना, सो परदारगननविरमण व्रत है । अरु जो अपनी स्त्री है, तिस ने संतोष करूं, ऐसा जो व्रत धारण करे, तिस को स्वदार संतोष व्रत कहिये । देवांगना तथा तिर्यचनी के साथ तो काया से मैथुन सेवन का निषेध है । तथा वर्तमान स्त्री को बर्ज के और स्त्री से विवाह न करे । तथा दिन में अपनी स्त्री से भी संभोग न करे, क्योंकि दिनसम्भोग से जो संतान उत्पन्न होती है, सो निर्बल होती है । जेकर कामाधिक होवे; तो दिन की भी मर्यादा कर लेवे । इसी तरे स्त्री भी परपुरुष का त्याग करे । इस रीति से चौथा व्रत पाले । इस व्रत के भी पांच अतिचार हैं, सो लिखते हैं। प्रथम अपरिगृहीतागमन अतिचार - बिना विवाही स्त्री
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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