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जैनतत्वादर्श चौरश्चौरापका मन्त्री, भेदज्ञः क्राणकक्रयी। अनदः स्थानदश्चैव, चौरः सप्तविधः स्मृतः ॥
[धर्म० प्र० टीका में संगृहीत] दूसरा प्रयोग अतिचार-चोरी करनेवालों को प्रेरणा करनी जैसे कि अरे ! तुम चुपचाप निर्व्यापार आज कल क्यों बैठे रहे हो! जेकर तुमारे पास खरचा न होवे, तो मैं देता हूं, अरु तुमारी लाई हुई वस्तु मैं बेच दूंगा, तुम चोरी करने के वास्ते जाओ, इत्यादि वचनों करके चोरों को प्रेरणा करनी।
तीसरा तत्प्रतिरूपक व्यवहार अतिचार-सरस वस्तु में नीरस वस्तु मिला कर बेचे, जैसे केसर में कसुंभादि मिला कर बेचे, घी में छाछादि, हींग में गूंदादि, खोटी कस्तूरी खरी करके बेचे, अफयून में खोट मिलावे, पुराणा वस्त्र रंगा कर नवे के भाव बेचे, रूई को पानी से मिगो कर बेचे, दूध में पानी मिला के बेचे, इत्यादि करे ।
चौथा राजविरुद्धगमन अतिचार-अपने गाम के वा देश के राजा ने आज्ञा दी, कि फलाने गाम में जाना नहीं, इत्यादि जो राजा की आज्ञा है, उसका उल्लंघन करना, वैरी राजा के देश में अपने राजा के हुकुम के बिना जाना ।
पांचमा कूट तोलमान अतिचार-खोटा तोल, माप, करने का अतिचार है। कमती तोल से तो देना, अरु अधिक तोल से लेना।