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________________ नवम परिच्छेद २७७ युक्ति से पानी में न गेरना । तथा अन्न, इंधन, शाक, दाल, तांबूल, अरु फलादिकों को विना शोधे खाना । तथा अक्षत, सोपारी, खारीक, वारह, उलि, फलि, प्रमुख सम्पूर्ण मुख में गेरे। टूटी के रास्ते तथा पानी आदिक को धारा बांध कर पीवे । तथा चलने में, बैठने में, स्नान करते, हरेक वस्तु रखते, लेते, रांधते, धान छड़ने, पीसते, औषधि घिसते, तथा मूत्र, श्लेष्म, कुरलादि का जल, तंबोल का ऊगाल गेरते, उपयोग न करे। तथा धर्म में अनादर करे । देव, गुरु, अरु साधर्मी से द्वेष करे। जिनमंदिर का धन खावे। अधर्मी की संगति करे । धर्मियों का उपहास करे। कपाय बहुलता होवे । तथा बहुत पापकारी क्रय विक्रय खर कर्म करना, पाप की नौकरी करनी। इत्यादि सर्व धर्मविरुद्ध है। यह पांच प्रकार का विरुद्ध श्रावक को त्यागना चाहिये । अथ उचित आचरण कहते हैं। उचित आचरण पिता आदि विषय मेट से नव प्रकार का है। तथा स्नेहवृद्धि और कीयादि का हेतु है। सो हितोपदेशमाला ग्रंथ से लिखते हैं। एक पिता के साथ उचित, दूसरा माता के साथ उचित, तीसरा भाइयों के साथ, चौथा सी के साथ, पांचमा पुत्र के साथ, छठा स्वजन के साथ, सातमा गुरु के साथ, आठमा नगरवालों के साथ, नवमा परतीर्थी अर्थात् दूसरे मतवालों के साथ, इन नव के साथ उचित आचरण करना।
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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