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________________ २७६ जैनतस्वादर्श होवे, उसकी संगति करनी, लोकमान्य की अवज्ञा करनी, भले आचारवाले को कष्ट पड़े, तब राजी होना । अपनी शक्ति के हुये साधर्मी के कष्ट को दूर न करना, देशादि उचिताचार का लंघन करना, थोड़े धन के हुए गुण्डों का सा वेष रखना, मैले वस्त्र पहिरने, इत्यादि लोकविरुद्ध है । यह सर्व इस लोक में अपयश का कारण है । यदुवाच वाचकमुख्य: लोकः खल्वाधारः सर्वेषां धर्मचारिणां स्यात् । तस्माल्लोकविरुद्धं धर्मविरुद्धं च संत्याज्यम् ॥ ---- अर्थः- उमास्वाति पूर्वधारी आचार्य कहते हैं कि, सर्व धर्म करनेवालों का लोक - जन समुदाय आधार है, तिस वास्ते लोकविरुद्ध अरु धर्मविरुद्ध यह दोनों त्यागने योग्य हैं, क्योंकि ऐसे करने से धर्म का सुखपूर्वक निर्वाह होता है | लोगविरुद्ध के त्यागने से सर्व लोगों को वल्लभ होता हैं, अरु जो लोगों को वल्लभ होना है, सोई सम्यक्वत्वतरु का बीज है । ५. धर्मविरुद्ध — मिथ्यात्व की को निर्दय हो के ताड़ना, बांधना, जूं, गेरना, धूप में गेरना, सिर में कंघी से लीख फोड़नी । उष्ण करनी, सर्व गौ आदिक माकड़ादि को निराधार काल में तथा शेष काल में गलने के वास्ते न रखना । चौड़ा, लम्बा, गाढ़ा गलना पानी पानी छान के पीछे जीवों को
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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