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________________ नवम परिच्छेद २७५ २. कालविरुद्ध-सो जैसे हिमालय के पास अत्यन्त शीन में, गर्मी के समय जंगल तथा मरुदेश में, वर्सात में अत्यन्त पिच्छिल-पंक संयुक्त दक्षिण समुद्र के पर्यत भागों में, तथा अति दुर्भिक्ष में, दो राजाओं के परस्पर विगेय में, तथा धाड ने जहां रस्ता रोका होवे, दुरुत्तार महाअटवी में. सांझ की वेला भय स्थान में, इतने स्थानकों में तैना सामर्थ्य सहायादि हह बल बिना जावे, तो प्राण, धननागादि अनर्थकारी है। तथा फाल्गुन मास पीछे तिलों का व्यापार, तिल पीलाने, तिल भक्षण करने । वर्षा ऋतु चौमासे में पत्र शाक का ग्रहण करना, तथा बहुजीवाकुल भूमि में हल फिराना, यह महादोष के कारण हैं। यह सर्व कालविरुद्ध जान लेना। ३. राजविरुद्ध यह है कि, राजा के दोष बोलना, जिस को राजा माने तिसको न मानना, तथा राजा के वेरियों से मेल करना, गजा के शत्रु के स्थान में लोभ से जाना, स्थान पर आये हुए राजा के शत्रु के साथ व्यापार करना, राजा के काम में अपनी इच्छा से विधि निषेध करना । ४. लोकविरुद्ध यह है कि, नगर-निवासियों के साथ प्रतिकूलता करनी, तथा स्वामिद्रोह करना, लोगों की निन्दा करनी, गुणवान् अरु धनवान् की निन्दा करनी, : अपनी बड़ाई करनी, सरल की हांसी करनी, गुणवान् में मरसर रखना, कृतघ्नना करना, बहुत लोगों का जो विरोधी
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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