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जैनतत्त्वादर्श श्राद्धदिनकृत्य सूत्र में लिखा है कि, व्यवहारशुद्धि जो है, सो ही धर्म का मूल है। जिसका व्यापार शुद्ध है, उसका धन भी शुद्ध है, जिसका धन शुद्ध है, उसका आहार शुद्ध है, जिसका आहार शुद्ध है उसकी देह शुद्ध है, जिस की देह शुद्ध है, वो धर्म के योग्य है । ऐसा पुरुष जो जो कृत्य करे, सो सर्व ही सफल होवे । अरु जो व्यवहार शुद्ध न करे, वो धर्म की निंदा कराने से स्वपर को दुर्लभवोधी करे । इस वास्ते व्यवहारशुद्धि जरूर करनी चाहिये। __ तथा देशादि विरुद्ध को त्यागे, अर्थात् देश, काल, राज
विरुद्धादि को परिहारे । यह कथन हितोदेगादि विरुद्ध पदेशमाला में भी है कि, देश, काल, रान, का त्याग अरु धर्म विरुद्ध जो त्यागे, सो पुरुष
सम्यग् धर्म को प्राप्त होता है । तिन में१. देशविरुद्ध जैसे कि सौवीर देश में खेती करनी । लाट देश में मदिरा बनानी, यह देशविरुद्ध है। तथा और भी जो जिस देश में शिष्टजनों के अनाचीर्ण है, सो तिस देश में विरुद्ध जानना । जाति, कुलादि की अपेक्षा जो अनुचित होवे, सो भी देशविरुद्ध है। जैसे ब्राह्मण जाति को मुरापान करना, तिल लवणादि बेचना, सो कुलापेक्षा विरुद्ध है । तथा जैसे चोहाण को मद्यपान करना, तथा और देशवालों के आगे और देशवालों की निन्दा करनी, यह भी देशविरुद्ध है।