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नवम परिच्छेद न्यायोपार्जित सत्पात्रविनियोगरूप प्रथम भंग । इस का पुण्यानुवन्धी पुण्य का हेतु होने से वैमानिक देवतापना, भोगभूमि, मनुष्यपना, सम्यक्त्वादि की प्राप्ति और निकट मोक्षफल है । धनसार्थवाह तथा शालिभद्रादिवत् ।
न्यायोपार्जित असत्पात्रविनियोगरूप दूसरा मंग। इनका पापानुबन्धी पुण्य का हेतु होने से भोग मात्र फल भी है, तो भी छेकड़ में विरस फल है। जैसे लक्ष भोज्य करनेवाला ब्राह्मण बहुत भवों में किञ्चित्सुख भोग के सेचनक नामा सर्वाग सुलक्षण भद्र हस्ती हुआ।
अन्याय से आया सस्पानपरिपोपरूप तीसरा भंग है। तिसका अच्छे खेत में जैसे सामक बो देनेवत् फल है। यह मुखानुबन्धी होने करके राजा के कारमारियों के बहुत आग्म्मोपार्जित धनवत् है। परन्तु ऐसा धन भी धर्म में लगावे, तो अच्छा है । आबू के पर्वत पर जिनमन्दिर बनाने. वाले विमलचन्द्र अरु तेजपाल मन्त्री की तरे जेकर ऐसा धन भी धर्म में न लगावे, तो दुर्गति अरु अकीर्ति ही इस का फल है, मम्मन शेठवत् । ___ अन्यायार्जित कुपात्रपोपरूप चौथा भंग है। यह मंग सर्वथा त्यागने योग्य है, क्योंकि अन्यायार्जित जो धन कुपात्र को देना. सो ऐमा है कि, जैसा गौ को मार के उस के मांस कागों का पोषण करना । इस वास्ते गृहस्थ को न्याय से ही धनोपार्जन करना चाहिये ।