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________________ २७२ जैनतत्वादर्श जब धन कमाने का प्रारम्भ करना, तब ही नफे में से इतना हिस्सा सात क्षेत्र में लगाऊंगा; ऐसी भावना जरूर करनी चाहिये। ___यदा लाभ हो जावे, तदा चिंता के अनुसार अपने मनोरथ को सफल करे, क्योंकि व्यापार का फल यह हैं कि, धन होना, अरु धन होने का फल यह है कि, धर्म में घन लगाना, नहीं तो व्यापार करना नरक तिर्यंचगति का कारण है। जेकर धर्म में खरचे, तो धर्मधन कहा जावे, जेकर नहीं खरचे तो पापधन कहा जावे। क्योंकि ऋद्धि तीन प्रकार की है-एक धर्म ऋद्धि, दूसरी भोग ऋद्धि, तीसरी पाप ऋद्धि। उस में जो धर्मकार्य में लगावे, सो धर्म ऋद्धि तथा जो शरीर के भोग में आवे सो भोगऋद्धि, अरु धर्म तथा भोग से जो रहित, सो पाप ऋद्धि जाननी। इस वास्ते नित्य प्रति स्वधन को दानादि धर्म में लगाना चाहिये । जेकर थोड़ा धन होय तो थोड़ा लगावे, क्योंकि किसी को ही इच्छानुसारिणी शक्ति होती है। तथा धन उत्पन्न करने का उपाय नित्य करना चाहिये, परन्तु अत्यन्त लोभ न करना चाहिये । तथा धर्म, अर्थ, अरु काम यथा अवसर में सेवना; परन्तु अत्यन्त कामासक्त न होना चाहिये । अरु जो धन उत्पन्न करना सो भी न्याय से उत्पन्न करना चाहिये। यहां पर जो न्यायार्जित धन सत्पात्र में देना, लगाना है, तिस के चार भंग हैं । यथा
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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