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जैनतत्वादर्श पिता के साथ उचित आचरण-सो मन, वचन अरु
काया करके तीन प्रकार से है। तिस में काया पिता से उचित करके तो पिता के शरीर की शुश्रूषा करे, किकर व्यवहार दास की तरे विनय करे। विना मुख से निकला
ही पिता का वचन प्रमाण करे । पिता के.शरीर की शुश्रूषा करे, पिता के चरण धोवे, मुट्ठी चांपी करे, उठावे, बैठावे । देश काल उचित भोजन, शय्या, वस्त्र, शरीर विलेपनादिका योग मिलावे । विनय से करे, आग्रह से न करे, आप करे, नौकरों से न करावे । पिता के वचन को प्रमाण करने के वास्ते श्रीरामचन्द्रजी राज्याभिषेक छोड़ के वनवास में गये। तथा पिता का वचन सुना अनसुना न करे । मस्तक धुनना और कालक्षेप भी न करे। पिता के मन के अनुसार प्रवर्ने तथा सर्व कृत्यों में यत्नपूर्वक जो अपने मन में कार्य करना उत्पन्न हुआ है, सो पिता के आगे कह देवे । पिता के मन को जो कार्य गमे. सो करे। क्योंकि माता, पिता, गुरु, बहुश्रुत, ये आराधे हुये, सर्व कार्य का रहस्य प्रकाश देते हैं। माता, पिता, कदाचित् कठिन वचन भी बोले, तो भी क्रोध न करे। जो जो धर्म का मनोरथ माता पिता के होवे, सो सो पूरा करे । इत्यादि माता पिता के साथ उचित आचरण करे।
माता के साथ उचित आचरण-सो भी पितावत् करे,