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________________ नवम परिच्छेद २७२ परन्तु माता के मनोरथ पिता से भी अधिक माता से उचित पूरे । देवपूजा, गुरुसेवा, धर्म सुनना, व्यवहार देशविरति अंगीकार करनी, आवश्यक करना, सात क्षेत्रों में धन लगाना, तीर्थयात्रा, अनाथ, दीन का उद्धार करना, इत्यादि माता के मनोरथ विशेष करके पूर्ण करे, क्योंकि यह करने योग्य ही है। ये पूर्वोक्त कृत्य भले-सपूत पुत्रों के हैं। इस लोक में गुरु, माता पिता है, सो माता पिता को जो पुत्र श्री अहंत के धर्म में जोड़े, तो ऐसा और कोई उपकार जगत् में नहीं है। उस पुत्र ने माता पिता का सर्व ऋण दे दिया, और किसी प्रकार से भी माता पिता का देना पुत्र नहीं दे सकता है । यह कथन श्रीस्थानांग सूत्र में है। ___ अब इस मात पिता के उचिताचरण में जो विशेष है, सो लिखते हैं। माता के चित्त के अनुसार प्रवर्ते, क्योंकि स्त्री का स्वभाव ही ऐसा होता है कि, जल्दी पीड़ा को प्राप्त हो जाना। इस वास्ते जिस काम से माता को पीड़ा होवे, सो काम न करे । क्योंकि पिता से मी माता विशेष पूज्य है। यन्मनुःउपाध्यायान् दशाचार्या, आचार्याणां शतं पिता । सहस्रं तु पितॄन माता, गौरवेणातिरिच्यते ।। [अ० २, श्लो० १४५]
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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