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________________ जैनतत्वादर्श * मांस भक्षयितामुत्र, यस्य मांसमिहाम्यहम् - 1. एतन्मांसस्य मांसत्वे, निरुक्तं मनुरब्रवीत् ॥ [ यो० श० प्र० ३ श्लो० २६] अर्थ:- जिस का मांस मैं खाता हूं, वो जीव मुझ को परभव में भक्षण करेगा, इस निरुक्त से #मनु जी मांस का अर्थ कहते हैं । मांसभक्षणवाले को महापाप लगता है । जो पुरुष मांस भक्षण में लंपट है, वो पुरुष जिस जिस जीव को - जलचर मत्स्यादि को, स्थलचर- मृग, सूअर प्रमुख को, खेचर - तित्तर, लाव, नटेरे प्रमुख को देखता है, तिस तिस को । डाकन की तरें सर्व को मार के खाने की बुद्धि करता है खाया चाहता है । मांस खानेवाला उत्तम पदार्थों का परिहार करके नीच पदार्थ के लेने में उद्यत होता है । जैसे काग पंचामृत छोड़ कर विष्ठे में चोंच देता है, उसी तरे जान लेना । इसी का नाम निर्विवेकता है । ये भक्षयंति पिशितं दिव्यभोज्येषु सत्स्वपि । सुधारसं परित्यज्य, भुंजते ते हलाहलम् ॥ [ यो० शा०, प्र० ३ श्लो० २८ ] * मनु० अ० ५, श्लो० ५५ में नीचे का आधा भाग इस प्रकार हैएतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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