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अष्टम परिच्छेद
जीववध अरु मांस भक्षण करे ।
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जो कोई महामूढ़, निर्विवेकी यह लिख गये हैं, कि मांस भक्षण करने में दूषण नहीं, वे भी म्लेच्छ थे, क्योंकि वे लिखते हैं:
न मांसभक्षणे दोषो, न मद्ये न च मैथुने । प्रवृचिरेपा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ||
[ मनु० अ० ५ श्लो० ५६ ]
इस श्लोक के कहनेवालों ने व्याध, गृत्र, भेड़िये, श्वानकुत्ते, व्याघ्र, गीदड़, काग प्रमुख हिंसक जीवों को अपना धर्मगुरु माना है, क्योंकि जेकर ये पूर्वोक्त गुरु न होते तो इन को मांस खाना कौन सिखाता ! बिना गुरु के उपदेश के पूज्यजन उपदेश नहीं देते हैं । इस श्लोक के बनाने वालों की अज्ञानता देखिये, वे कहते हैं, कि मांस खाने में, मदिरा पीने में अरु मैथुन सेवने में पाप नहीं, परन्तु 'निवृचिस्तु महाफला 'इन से जो निवृत्ति करे, तो महाफल है । यह स्ववचन विरोध है, क्योंकि जिस के करने में पाप नहीं, उस के त्यागने में धर्मफल कदापि नहीं हो सकता है ।
अथ निरुक्ति के वल से भी मांस त्यागने योग्य है । सो कहते हैं: