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जैनतत्त्वादर्श सिता-मारे हुए जीव के अंग का विभाग करनेवाला, ३. निहंता-मारनेवाला, ४. मांस का बेचनेवाला, ५. मांस को रांधनेवाला, ६. मांस को परोसनेवाला, ७. मांस को खानेवाला, यह सातों घातकी हैं, अर्थात् जीव के वध करनेवाले हैं। दूसरा श्लोक भी मनुस्मृति का लिखते हैं:
नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां, मांसमुत्पद्यते कचित् । न च प्राणिवधः स्वयंस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ।।
[अ० ५०, श्लो० ४८] अर्थ:-जितना चिर जीव को न मारे, तहां तक मांस नहीं होता है, अरु जीव वध से स्वर्ग नहीं अपितु नरक गति होती हैं। इस वास्ते मांस खाना वर्जे । __अब मांस खानेवाले को ही वधकपना है, यह बात कहते हैं। दूसरे जीवों का मांस जो अपने मांस की पुष्टता के वास्ते खाते हैं, वास्तव में वे ही कसाई हैं। क्योंकि जेकर खानेवाले न होवें, तो कोई जीव को भी काहे को मारे । जो प्राणियों को मार करके अपने को सप्राण करते हैं, वे जीव थोड़ी सी जिंदगी के वास्ते अपना नाश करते हैं । एक अपने जीवन के वास्ते कोड़ों जीवों को जो दुःख देता है, तो वो क्या सदा काल जीता रहेगा ! जिस शरीर में सुन्दर मिष्टान्न विष्टा हो जाता है, अरु दूध प्रमुख अमृत वस्तुएं.मूत्र हो जाती हैं, तिस शरीर के वास्ते कौन बुद्धिमान