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अष्टम परिच्छेद अर्थः-सकल धातुओं की वृद्धि करने वाला दिव्य भोजन विद्यमान हुए अर्थात् सर्व इन्द्रियों के आह्वादजनक दूध, क्षीर, किलाट, कूर्चिका, रसाल, दधि आदिक, मोदक, मंदक मंडिका, खाजे, पापड़, घेउर, इंडरिका, खंडवड़े, पूरणपड़े, गुड़पापड़ी, इक्षुरस, गुड़, मिसरी, द्राक्षा, अंब, केले, अनार, नारियल, नारंगी, संतरे, खजूर, अक्षोट, राजादनखिरणी, फनस, अलूचे, वादाम, पिस्ता, इत्यादि अनेक दिव्यभोजनों को छोड़ के मूढमति विनगंधि, सूगवाला, वमन का करने वाला, ऐसे वीभत्स मांस का भक्षण करता है, वो जीव जीवितव्य की वृद्धि के वास्ते अमृत रस को छोड़ कर जीवितांतकारी हलाहल-विष को मक्षण करता है। बालक जो होता है, वो भी पत्थर को छोड़ कर सुवर्ण को ग्रहण करता है। परन्तु जो मांसाहारी पुरुष है, वो तो मांस से भी अधिक पुष्टता को देने वाला जो दिव्य भोजन, तिस को छोड़ कर मांस खाता है, वो तो वालक से भीअज्ञानी है। ___ अब और तरे से मांसभक्षण में दूषण लिखते हैं । जो निर्दय पुरुष है, उस में धर्म नही, क्योंकि धर्म का मूल दया है। ये वात सर्व संत जन मानते हैं। अरु मांसाहारी को दया तो है नहीं, मांस खाने वाले को पूर्व में कसाई कहा है, इस वास्ते मांसाहारी में धर्म नहीं। . प्रश्न:-मांसाहारी अपने आप को अधर्मी क्यों बनाता है।