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जैनतत्त्वादर्श उत्तरः-मांस के स्वाद में लुब्ध हुमा वो धर्म दया कुछ नहीं जानता है, जेकर कदाचित् जान भी जाता है, तो भी आप मांसलब्ध है, इस से मांस त्याग करने को समर्थ नहीं। इस वास्ते वो मन में विचार करता है, कि मेरे समान ही सर्व हो जावें, ऐसा जान कर औरों को भी मांसभक्षण न करने का उपदेश नहीं करता है।
अब मांसभक्षण करने वाले महामूढ हैं, यह बात कहते हैं। कितनेक मूढमति आप तो मांस नहीं खाते हैं, परन्तु देवता, पितर, अतिथि, इन को मांस चढ़ाते हैं, क्योंकि उन के शास्त्रकार कहते हैं:
क्रीत्वा स्वयं वाप्युत्पाद्य, परोपहृतमेव चा । देवान् पितृन् समभ्यर्च्य, खादन मांसं न दुष्यति ।
[यो शा०, प्र० ३, श्लो० ३१] यह श्लोक मृग पक्षियों के विषय में है, इस का अर्थ यह है । कसाई की दुकान विना व्याघ्र, शकुनिकादिकों से अर्थात् शिकारी और जानवरों के मारने वालों से मांस मोल से लेकर देवता, अतिथि, पितरों को देने चाहिये। क्योंकि वे लिखते हैं, कि कसाई की दुकान के मांस से देवता, पितरों की पूजा नहीं होती है, तांते आप मांस उत्पन्न करके
* मनुस्मृति अ. ५, श्लो० ३२ में "परोपकृतमेव चा" ऐसा पाठ है।