________________
अष्टम परिच्छेद
पितृ आदिकों को देवे, तो पितृ आदि प्रसन्न होते हैं । सो इस प्रकार से मांस उत्पन्न करे, कि ब्राह्मण तो मांग कर मांस लावे, और क्षत्रिय शिकार मारके मांस लावे, अथवा किसी ने मांस मेट करा होवे, उस मांस से देवता पितरों की पूजा करके मांस खावे, तो दूषण नही, परन्तु यह सर्व महामूढ और मिथ्यादृष्टियों का कहना है । क्योंकि दयाधर्मी आस्तिकमत बालों को तो मांस दृष्टि से भी देखना योग्य नहीं । तो फिर देवता, पितरों की पूजा मांस से करनी, यह भावना तो धर्मी को स्वझे में भी न होवेगी । इस वास्ते देवताओं को मांस चड़ाना यह बुद्धिमानों का काम नहीं, कारण कि देवता तो बड़े पुण्यवान हैं, कवल का आहार करते नहीं हैं; तो फिर जुगुप्सनीय मांस क्योंकर खायेंगे ! जो कहते हैं कि देवता मांस खाते हैं, वे महा अज्ञानी हैं। अरु पितर जो हैं, वे तो अपने अपने पुण्य पाप के प्रभाव से अच्छी बुरी गति को प्राप्त हो गये है, अपने करे हुए कर्मों का फल भोगते हैं, पुत्र के करे हुए कर्म का उनको कुछ भी फल नही लगता है । तब मांस देने रूप पाप का तो कया कहना है !
केले में फल नहीं
पुत्रादिकों का सुकृत करा हुआ भी तिन को नहीं मिलता है, क्योंकि अंब के सींचने से फलता है । अरु अतिथि की भक्ति के है, सो तो नरकपात का हेतु अरु महा अधर्म का कारण. है। यहां कोई ऐसे कहे कि जो बात श्रुति स्मृति में है, वो
वास्ते जो मांस देना
-