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जैनतत्वादर्श माननी चाहिये, तो यह कहना ठीक नहीं है। क्यों कि जो बात अति में अप्रमाणिक लिखी है, वो बुद्धिमान् कदापि नहीं मानेंगे। तथापिः
* " श्रूयन्ते हि श्रुतित्रचासि-यथा पापनो गोस्पशी, हुमाणां च पूजा, छागादीनां वधः स्वयः, ब्राह्मणओजनं पितृप्रीणनं, मायावीन्यधिदैवतानि, वह्नौ हुतं देवप्रीतिपदम् ।
ऐसा कथन जो श्रुतियों में है, तिस को युक्ति कुशल पुरुष कदापि नहीं मानेंगे। तिस वास्ते यही महा अज्ञान है, जो कि मांस करके देवताओं की पूजा करनी। कितनेक कहते हैं, कि जैसे मन्त्रों करके संस्कृत अग्नि दाह नहीं करती है, जैसे ही मन्त्रों करके संस्कार करा हुआ मांस भी दोष के वास्ते नहीं होता है, यह कथन मनुजी का है । यथा
असंस्कृतान् पशून्मंत्रै धाद्विप्रः कथंचन । मंत्रैस्तु संस्कृतानधाच्छाश्चत विधिमास्थितः ॥१॥
[अ० ५, श्लो० ३६ ] अर्थ:--मन्त्रों करके असंस्कृत पशुओं के मांस को वैदिक
* यो० शा., अ० ३, को० ३1 के स्वोपन विवरण का पाठ ।