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अष्टम परिच्छेद
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विधि में स्थित हुआ ब्राह्मण न खावे, अरु जो मन्त्रों करके संस्कृत पशु है, तिन का मांस खावे ।
परन्तु यह कथन ठीक नहीं है । मन्त्र करके जो मांस पवित्र किया है, उस मांस को धर्मी पुरुष कदापि भक्षण न करे, क्योंकि मन्त्र जैसे अग्नि की दाह शक्ति को रोकते हैं, तैसे मांस की नरकादि प्रापण शक्ति को दूर नहीं कर सकते । जेकर दूर कर देवें, तब तो सर्व पाप करके पीछे पाप हननेवाले मन्त्र के स्मरण मात्र से ही सर्व पाप दूर हो फिर जो वेदों में पाप का निषेध करा है, सो सर्व निरर्थक हो जावेगा; क्योंकि सर्व पापों का मन्त्र के स्मरण से ही नाश हो जायगा । इस वास्ते यह भी अज्ञों ही का कहना है !
जाने चाहियें। तो
तथा कोई कहते हैं, कि जैसे थोड़ा सा मद्य पीने से नशा नहीं चढ़ता हैं, तैसे थोड़ा सा मांस खाने में भी पाप नहीं लगता है । यह भी ठीक नहीं । अतः बुद्धिमान् यवमात्र भी मांस न खाये, क्योंकि थोड़ा भी विष जैसे दुःखदायी होता है, तैसे थोड़ा भी मांस खाना दोष के तांह है ।
अब मांस खाने में अनुत्तर दूपण कहते हैं। तत्काल ही उत्पन्न होते है, अरु अनंत वारंवार होना, तिस करके
इस मांस में संमूच्छिम जीव
निगोद रूप जीवों का संतान दूषित है । यदाहु:
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