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नवम परिच्छेद
२९३ योग्य न होवे, सो न करे । तथा नीति शास्रोत तथा और शास्त्रों में जो उचिताचरण होवे, सो करे, अरु अनुचित होवे, सो वर्जे ।
मध्यान्ह में पूर्वोक्त विधि से विशेष करके प्रधान शाल्योदनादि निष्पन्न निःशेष रसवती ढोवे । दूसरी वार जिनपूजा, जो मध्यान्ह की पूजा, अरु भोजन, इन दोनों का कालनियम नही। क्योंकि जब भूख लगे, सोई भोजन काल है । इस वास्ते मध्यान्ह से पहिले भी प्रत्याख्यान पार के देवपूजापूर्वक भोजन करे, तो दोष नहीं । वैदक ग्रंथो में भी लिखा है कि, एक प्रहर में दो बार भोजन करे, तथा दो प्रहर उल्लंघे नहीं, क्योंकि एक प्रहर में दो वार खाने से रसोत्पत्ति होती है, अरु जेकर दो प्रहर पीछे न खावे, तो वलक्षय होता है ।
अव सुपात्रदानादि की युक्ति लिखते हैं । सो ऐसे हैभोजन वेला में भक्ति सहित साधुओं को निमंत्रणा करके, साधु के साथ घर में आवे, अथवा साधु स्वयमेव आता होवे तब सन्मुख जा के आदर करे । विनय सहित संविज्ञ भावित अभावित क्षेत्र देखे, तथा सुभिक्ष दुर्भिक्षादिक काल देखे, तथा सुलभ दुर्लभादिक देने योग्य वस्तु देखे, तथा आचार्य, उपाध्याय, गीतार्थ, तपस्वी, बाल, वृद्ध, ग्लान, सह असहादि अपेक्षा करके महत्त्व, स्पर्द्धा, मत्सर, स्नेह, लज्जा, भय,
सुपात्रदान