________________
२९४
जैनतस्वादर्श दाक्षिण्य, परानुयायिपना, प्रत्युपकार, इच्छा, माया, विलंब, अनादर, बुरा बोलना, पश्चात्तापादि, ये सर्व दान के दूषण वर्ज के आत्मा को संसार से तारने के वास्ते, ऐसी बुद्धि से बैतालीश दूषण सहित जो कुछ घर में अन्न, पकान, पानी, वस्त्रादि होवे, तिस की अनुक्रम से सर्व निमंत्रणा करे, अपने हाथ में पात्र ले के पास रही भार्यादिक से दान दिलावे । पीछे वंदना करके अपने घर के दरवाजे तक साथ जावे, फिर पीछा आवे । जेकर साधु न होवे, तदा बिना बादलों के मेघ की तरें साधु का आना देखे । जो साधु आ जावे, तो तेरा जन्म सफल हो जावे, इस वास्ते दिशावलोकन करे । जो भोजन साधु को न दिया होवे, सो भोजन श्रावक न खावे । तथा जो श्रावक लष्टपुष्ट साधु को बिना कारण अशुद्ध आहार देवे, तो लेने देनेवाले दोनों को रोगी के दृष्टांत करके हितकारी नहीं है । तथा जिस साधु का निर्वाह न होवे, दुर्मिक्ष होवे, साधु रोगी होवे तथा और कोई कारण होवे, तो उस साधु को अशुद्ध, अप्राशुक आहार देवे । तो लेने देनेवाले दोनों को हितकारी होवे । तथा रस्ते के थके हुए को, रोगी को, शास्त्र पढ़नेवाले को, लोच करे को, पारने के दिन को दान देवे, तो बहुत फल होता है। इस सुपात्रदान को अतिथिसंविभाग कहते हैं । यदागमः- " अतिहिसंविभागो नाम नायगयाणं" इत्यादि पाठ का अर्थ कहते हैं-अतिथिसंविभाग उसको कहते हैं कि, जो