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नवम परिच्छेद
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न्याय से आया कल्पनीय अन्न, पानी प्रमुख, देश, काल, श्रद्धा सत्कार क्रमयुक्त उत्कृष्ट भक्ति से, आत्मा की अनुग्रह बुद्धि से संयत साधु को दान देवे । सुपात्रदान से देवता संबंधी तथा औदारिकादि सम्बन्धी अद्भुत भोग इष्ट सर्व सुखसमृद्धि, राज्य प्रमुख मनगमता संयोगादि की प्राप्ति, और निर्विलंब, निविंश, मोक्षफलप्राप्ति है; क्योंकि अभयदान अरु सुपात्रदान तो मोक्ष देते हैं, और अनुकंपादान, उचितदान अरु कीर्त्तिदान, यह तीनों सांसारिक मुखभोगों के देनेवाले हैं ।
पात्र भी तीन तरे का कहा है। एक उत्तम पात्र साधु है, दूसरा मध्यम पात्र श्रावक है, तीसरा अविरतिसम्यग् दृष्टि, सो जधन्य पात्र है । तथा अनादर, कालविलंब, विमुख, ये खोटा वचन बोलना अरु दान दे के पश्चाताप करना, पांच सद्दान के कलंक हैं । तथा आनंद के आंसु भावें, रोमांच होवे, बहुमान देवे, मीठा बोले, दान दिये पीछे अनुमोदना करे, यह पांच सुपात्र दान के भूपण हैं । सुपात्र दान का परिग्रह परिमाण करने का फल, रत्नसारकुमार की तरे होता है; यह कथा श्राद्धविधि ग्रंथ से जान लेनी । इस वास्ते ऐसे साधु आदि संयोग के मिलने से सुपात्रदान, दिनप्रतिदिन विवेकवान् अवश्य करे ।
तथा यथाशक्ति भोजनावसर में आये साधर्मियों को अपने साथ भोजन करावे, क्योंकि वो भी पात्र हैं । तथा