________________
जैनतत्त्वादर्श अन्धे आदि मांगनेवालों को भी यथायोग्य देवे । परंतु किसी मांगनेवाले को निराश न जाने देवे। धर्म की निंदा न करावे, कठिन हृदयवाला न होवे, भोजन के अवसर में दयावन्त को कपाट लगाने न चाहिये, उसमें भी धनचान् तो विशेष करके कपाट लगावे ही नहीं। आगम में भी कहा है
नेव दारं पिहावे, मुंजमाणो सुसावओ। अणुकम्पा जिणिदेहि, सड्डाणं न निवारिया ॥१॥ दहण पाणिनिवहं, भीमे भवसायरंमि दुक्खत्तं । अविससओणुकंप दुहावि सामत्थओ कुणइ ॥ २ ॥
अर्थ:-भोजन करते हुए दरवाजा बड़े नहीं, क्योंकि अनुकंपादान श्रावक को जिनेश्वर भगवान् ने मना नहीं करा है । जीवों के समूह को भयानक संसार में दुःखपीडित देख कर विशेष रहित द्रव्य अरु भाव दोनों तरे से अनुकम्पा करे। उस में द्रव्य से तो यथायोग्य अन्नादि देवे, अरु भाव से उनको सन्मार्ग में प्रववि। श्रीपंचमांगादिक में जहां श्रावकों का वर्णन करा है, तहां ऐसा पाठ है" अवगुंठिम दुवारा" इस विशेषण करके भिक्षुकादिकों के प्रवेश के वास्ते सदा किवाड़ उघाडे रक्खे । दीनोद्धार तो संवत्सरी दान देकर तीर्थंकरों ने भी करा है। कदापि काल