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________________ नवम परिच्छेद २९७ दुकाल पड़ जावे, तब तो श्रावक जो होवे, सो विशेष करके दानादि से दीनों का उद्धार करे। क्योंकि आगे भी विक्रमादित्य के संवत् १३१५ में भद्रेसर गाम के वसनेवाले श्रीमालजातीय गाह झगडु श्रावक ने एक सौ बारह दानशाला करके दान दीया है। तथा विक्रमादित्य के संवत् १४२९ में सोनी सिंहा श्रावक ने २४००० मन अन्न, दीन जीवों को दुकाल में दिया है। तथा निर्दूषण आहार देवे, तो सुपात्र दान शुद्ध है। तथा माता, पिता, भाई, बहिन, पुत्र, बहू, सेवक, ग्लान, अरु चांधे हुये गौ प्रमुख, इन सर्व की चिंता भोजन सम्मती करके अर्थात् इन सर्व को भोजन करा के नियम पीछे पंचपरमेष्ठी स्मरण करके प्रत्याख्यान पारके, सर्व नियम स्मरण करके, साम्यता से भोजन करे। साम्यता ऐसे जाननी कि-जो अन्न, पानी, आपस में विरुद्ध न होवे, तथा उलटा न परिणमे, अपने स्वभाव के माफक होवे, तिस को साम्य कहते है। जो पुरुष सपूर्ण जन्म तक साम्यता से भोजन करे, वो फिर कमी विप भी खावे, तो भी अमृत हो जावे । अरु असाम्यता से अमृत खाया भी विप हो जाता है । परन्तु इतना विशेष है कि, साम्यता से भी पथ्य ही खाना चाहिये, अपथ्य नहीं । तथा खाने में अत्यन्त गृद्ध भी न होना चाहिये । जव कंठनाड़ी से हेठ उतर जाता है, तब सर्व भोजन घरावर हो जाता है । अतः एक क्षणमात्र के स्वाद
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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