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जैनतत्त्वादर्श के वास्ते अति लौल्य न करना चाहिये। तथा अभक्ष्य अनंतकाय, बहु सावध वस्तु अर्थात् बहुत पापवाली वस्तु न खावे । तथा जो थोड़ा खाता है, सो बहुत बलवान होता है। तथा जो बहुत खाता है, सो अल्प खाने के फलवाला होता है। तथा अधिक खाने से अजीर्ण, वमन, विरेचनादि मरणांत कष्ट भी हो जाता है । यथा--
हितमितविपक्कभोजी, वामशयी नित्यचंक्रमणशील। उज्झितमूत्रपुरीषः, स्त्रीषु जितात्मा जयति रोगान् ॥
अर्थ-जो भूख लगे तो हितकारी ऐसा अन्न थोडा जीमे, वामा पासा हेठ करके सोवे, नित्य चलने का स्वभावशील होवे, जब बाधा होवे, तब ही दिशा मात्रा करे, स्त्री से भोग न करे, वो पुरुष रोगों को जीत लेता है। ___अथ भोजनविधि, व्यवहार शास्त्रादिकों के अनुसार लिखते हैं। अतिप्रभात में, अतिसंध्या में तथा रात्रि में भोजन न करना चाहिये। तथा सड़ा, वासी अन्न न खावे । चलता हुआ न खावे, तथा दाहिने पग के ऊपर हाथ रख कर न खावे । हाथ ऊपर रख के न खावे । खुल्ले आकाश में न खावे, धूप में बैठ के न खावे। अंधेरे में वृक्ष के तले न खावे । तर्जनी अंगुली ऊंची करके कदापि न खावे । मुख, हाथ, पग, अरु वस्त्र, विना घोया न खावे। नंगा हो कर मैले वस्त्रों से, दाहिने हाथ से, थाल को विना पकड़े न