________________
१८६
जैन तत्त्वा दर्श
सूत्रोत्सर्ग मलोत्सर्ग, मैथुनं स्नानभोजने । संध्यादिकर्म पूजा च कुर्याजापं च मौनवान् ॥
अर्थः- मूतना, दिशा फिरना, मैथुन करना, स्नान, भोजन, संध्यादि कर्म, पूजा, जाप, यह सर्व मौनपने करने । तथा दोनों संध्या वस्त्र पहिर के करे । तथा दिन में उत्तर के सम्मुख हो करके, अरु रात्रि को दक्षिण दिशा के सन्मुख हो करके लघुशंका उच्चार करे । तथा सर्व नक्षत्रों का तेज सूर्य करके जब भ्रष्ट हो जावे, नहां तक सूर्य का आधा मांडला उगे, तहां तक सवेरे की संध्या करनी । तथा सूर्य आघा अस्त होवे, उसके पीछे दो तीन नक्षत्र जहां तक नजर न पड़े, तहां तक सायंकाल कहते हैं। तथा राख का ढेर, गोवर का ढेर, गौ के बैठने के स्थान में, सर्प की बंवी पर तथा जहां बहुत लोग पुरीषोत्सर्गं करते होवें, तथा उत्तम वृक्ष के हेठ, रस्ते के वृक्ष के हेठ, रस्ते में, सूर्य के सन्मुख, पानी की जगह में, मसानों में, नदी के कांठे पर, तथा
जिस जगह को स्त्री पूजती होवे, इत्यादि स्थानों में मलोत्सर्ग न करे । परन्तु जहां बैठने से कोई मारपीट न करे, पकड़ के न ले जावे, धर्म की निंदा न होवे, तथा जहां बैठने से गिरे, फिसले नहीं, पोली भूमि न होवे, घासादि न होवे, त्रस जीव वीज न होवे, इत्यादि उचित स्थान में मलोत्सर्ग करे । गाम के तथा किसी के घर समीप मलो