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नवम परिच्छेद त्सर्ग न करे । तथा जिस तरफ से पवन आती होवे, तथा गाम, सूर्य, पूर्व दिशा की तरफ पीठ करके मलोत्सर्ग न करे। दिशा अरु मूत्र का वेग रोकना नहीं, क्योंकि मूत्र के वेग रोकने से नेत्रों में हानि होती है। तथा दिशा का वेग रोकने से काल हो जाता है । तथा वमन रोकने से कुष्ट रोग हो जाता है । जेकर ये तीनों बातें न होवेंगी तो रोग तो ज़रूर हो जावेगा । श्लेष्मादि करके ऊपर धूलि गेर देवे। क्योंकि श्रीप्रज्ञापनोपांग के प्रथम पद में लिखा है कि, चौदह जगे में संमूच्छिम जीव उत्पन्न होते हैं। सो चौदह स्थानक कहते हैं
१. पुरीप में, २. मूत्र में, ३. मुखके थूक में, ४. नाक के मैल में, ५. वमन में, ६. पित्तों में, ७. वीर्य में, ८. वीर्य रुधिर दोनों में, ९. राध में, १० वीर्य का पुद्गल अलग निकल पड़े, उसमें ११. जीव रहित कलेवर में, १२. स्त्री पुरुष के संयोग में, १३. नगरी की मोरी में, १४. सर्व अशुचि स्थान में, कान की मैल में, आंख की गोद में, कांख की मैल प्रमुख में, यह सर्व चौदह बोल मनुष्य के संसर्गवाले ग्रहण करने । अरु जब ये शरीर से अलग होवें, तब इनमें जीव उत्पन्न होते हैं।
तथा दातन भी निरवद्य स्थान में करे। दातन अचिर