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________________ 408 जैनतवादर्श कालासुर ने अवसर पा करके राजसूयादिक यज्ञ भी कराया। और जो जीव यज्ञ में मारे जाते थे, तिन को विमानों में बैठा के देवमाया से दिखाया। तब लोगों को प्रतीत आ गई, पीछे वो निःशंक हो कर जीवहिंसारूप यज्ञ करने लगे और पर्वत का मत मानने लगे। सगर राजा भी यज्ञ करने में बड़ा तत्पर हुआ। सुलसा और सगर दोनों मर के नरक में गये। तब महाकालासुर ने सगर राजा को नरक में मार पीटादि महादुःख दे के अपना वैर लिया। इस वास्ते हे रावण ! पर्वत पापी से यह जीवहिंसारूप यज्ञ विशेष करके प्रवृत्त हुये। हे राजा रावण ! सो यह यज्ञ विशेष तूने निषेध करा। यह कथा सुन के राजा रावण ने प्रणाम करके , नारद को विदा करा। इस तरे से जैनमत के शास्त्रों में वेदों की उत्पत्ति लिखी है सो आवश्यकसूत्र, आचारदिनकर, वेसठशलाका पुरुष चरित्र में सर्व लिखा है, तहां से देख लेना। और इस वर्तमान काल में जो चारों वेद है, इनकी उत्पत्ति डाक्टर मेक्षमूलर साहिब अपने बनाये संस्कृत साहित्य ग्रन्थ में तो ऐसे लिखते हैं कि, वेदों में दो भाग हैं, एक छन्दोभाग, दूसरा मन्त्रमाग है। तिन में छन्दोभाग में इस प्रकार का कथन है, जैसे अज्ञानी के मुख से अकस्मात् बचन निकला हो, तैसे इसकी उत्पत्ति इकत्तीस सौ वर्ष से हुई है। और मन्त्रमाग को बने हुये उनतीस सौ वर्ष
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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