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नवम परिच्छेद दोष है। ऐसा करना युक्त नहीं, क्योंकि स्वद्रव्य से ही पूजा करनी उचित है। तथा देहरे का नैवेद्य अक्षतादि अपने धन की तरे रखने चाहिये। पूरे मूल्य से वेच के देवद्रव्यों को बढाना चाहिये । परन्तु जैसे तैसे मोल से न जाने देवे, नहीं तो देवद्रव्य के नाश करने का दूषण लग जावेगा। तथा सर्व तरे से करते हुए भी चौर, अग्नि, आदिक के उपद्रव से देवद्रव्य नष्ट हो जावे, तो चिता. कारक को दोप नहीं।
तथा देव, गुरु, यात्रा, तीर्थ अरु संघ की पूजा साधर्मिवात्सल्य, स्नात्र, प्रभावना, ज्ञान लिखाना इत्यादिक कारणों के वास्ते दूसरों के पास से जब धन लेवे, तब चार पांच पुरुषों की साक्षी से लेवे, फिर खरचने के अवसर में भी गुरु, संघादिक के आगे प्रगट कह देवे कि, यह धन मैंने अमुक का दिया हुआ खरचा है; मेरा नहीं है। __तथा तीर्थादि में अरु पूजा स्नात्र ध्वजा चढ़ाने आदि आवश्यक कर्तव्य में दूसरों का सिर न करे; किंतु स्वयमेव ही यथाशक्ति करे। जेकर किसी ने धर्म खरच में धन दिया होवे, तब तिस का प्रगट नाम ले कर सर्व समक्ष न्यारा ही खरच करना चाहिये । यढा बहुत मिल कर यात्रा साधर्मिवात्सल्य संघपूजादि करें, तब जितना जितना जिस का हिस्सा होवे, उतना उतना प्रगट कह देवे; नहीं तो पुण्य फल की चोरी लगे।