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________________ जैनतस्वादर्श तथा मरण के समय में माता, पितादिक जो धर्म में खरच करना कहे तथा पुत्रादि जो खरच करना माने सो बहुत से श्रावकों के आगे कहना चाहिये; जैसे मैं तुमारे नाम से इतने दिनों के बीच में इतना धन खरचूंगा । तुम उस की अनुमोदना करो । पीछे सो धन सर्व समक्ष अपने नाम से नहीं रखना, किन्तु माता पितादि के नाम से तत्काल खरच कर देना चाहिये । धर्म में मुख्यवृत्ति करके तो साधारण द्रव्य ही का खर्च करना चाहिये, क्योंकि जहां जहां काम पड़े, तहां तहां खरच में लावे । सात क्षेत्रों में कौनसा क्षेत्र -- सीदते - नष्ट होते देखे, तिस में धन खरच के तिस को उपष्टंभ देवे । कोई श्रावक निर्धन हो जावे तो भी उसको उसी घन से दें । लोकेऽप्युक्तम्: २४८ -- दरिद्र भर राजेंद्र 1 मा समृद्धं कदाचन । व्याधितस्योपधं पथ्यं, नीरोगस्य किमौषधम् १ ॥ इस वास्ते प्रभावना और संघ पहिरावणी, सम्यक्त्व के मोदकलम्भन आदि में जो निर्धन साधर्मी होवें, तिनको विशेष वस्तु देनी चाहिये; अन्यथा धर्मावज्ञादि दोष होवे । यह वात युक्त है कि, धनवान् से निर्धन को अधिक वस्तु देनी चाहिये । यदा शक्ति न होवे, तदा दोनों को बराबर देवे । अपना खरच धर्म द्रव्य से न करना । यात्रादिक के निमित्त जो धन काढे, सो सर्व देवादि निमित्त हो गया
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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