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नवम परिच्छेद
२४९ नेकर वो द्रव्य अपने भोजन में अथवा गाडी आदिक के भाडे में लगावेगा, तब ज़रूर उसको देवद्रव्य खाने का पाप लगेगा, कदाचित् अज्ञान करके, चूक के, समझी से, इत्यादि कारणों से कोई श्रावकादि देवादि द्रव्य का उपभोग कर लेवे, तो तिसके प्रायश्चित्त में जितना द्रव्य खाया होवे, उतना द्रव्य देव साधारण संबंध में देवे । मरण अवस्था में शक्ति के अभाव से धर्मस्थान में थोड़ा ही खरचे । परन्तु देना किसी का न रक्खे । देवादि द्रव्य तो विशेष करके न रक्खे ।
- इस रीति से श्रीजिनराज की पूजा हुढ़ भावों से करनी चाहिये।
अब गुरुवंदना की विधि लिखते हैं। जो ज्ञानादि पाच आचार करके संयुक्त होवे, और शुद्ध धर्म के प्ररूपक होवें, सो गुरु हैं। पांच आचार का स्वरूप देखना होवे, तदा श्री रत्नशेखरसूरिकृत आचारप्रदीप ग्रंथ देख लेना। यह पूर्वोक्त गुरु आचार्यादिक के पास, जो प्रत्याख्यान
पूर्व में अपने आप करा था, सो विशेष करके गुरुवन्दन और विधिपूर्वक गुरु के मुख से उच्चरावे । क्योंकि प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान तीन तरे से करा जाता है-एक
आत्मसाक्षिक, दूसरा देवसाक्षिक, तीसरा गुरुसाक्षिक । तिस की विधि यह है। ___ मंदिर में देववंदनार्थ, स्नानादि देखने के अर्थ, धर्मोपदेश देने के अर्थ, गुरु जिनमन्दिर में आये होवें, तहां मन्दिर की