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जैनतश्चादर्श
तरें तीन निस्सही पंचाभिगमनादि यथायोग्य विधि से जा करके गुरु के धर्मोपदेश से पहिले तथा पीछे, यथाविधि से पच्चीस आवश्यक से शुद्ध द्वादशावर्त्त चंदना देवे । वंदना का बड़ा फल कहा हैं । कृष्णवासुदेववत् । तथा भाष्य में वंदना तीन तरें की कही हैं, एक तो मस्तक नमावणादि सो फेटा वंदना, दूसरी संपूर्ण दो खनासमण पढ़ने से स्तोमवंदना होती है । तीसरी द्वादशावर्च करने से द्वादशावत वंदना होती है । तिस में प्रथम वंदना तो सर्व संघ को करनी, दूसरी वंदना सर्व स्वदर्शनी साधुओं को करनी. अरु तीसरी वंदना जो है, सो पदवीधर आचार्यादिक को करनी ।
जिस ने सवेरे का पड़िकमणा न करा होवे, तिस ने विधिपूर्वक वंदना करनी। क्योंकि भाप्य में ऐसे ही लिखा है । १. भाप्योक्त विधि - ईर्यापथ प्रतिक्रमे २ पीछे कुस्वप्न का कायोत्सर्ग करे - सौ उछ्वास प्रमाण करे । जेकर स्वप्न में स्त्री से संगम करा होवे, तदा अशुचि की सर्व जगा धो के पीछे एक सौ आठ श्वासोच्छवास प्रमाण कायोत्सर्ग करे । ३ पीछे चैत्यवंदना करे । खमासमणपूर्वक
४. पीछे
५.
बंदना देवे ।
पीछे दो पीछे दो आलोवे । ७. अव्सुट्टिभोमि कहे । ९. पीछे दो बन्दना
फिर वन्दना
मुखवस्त्रिका प्रतिलेखे । ६. पीछे देवसि आदिक दो देवे । ८. पीछे