________________ द्वादश परिच्छेद 465 अपाम सोमममृता अभूम, अगमाम ज्योतिरविदाम देवान्, किं नूनमस्मात् तृणवदरातिः किमु मृर्तिममृतमय॑स्येत्यादीनि / तथा को जानाति मायोपमान् गीर्वाणानिन्द्रयमवरुणकुवे. रादीन इत्यादि। इन का ऐसा अर्थ तेरे मन में मासन होता है-पाप दूर करने में समर्थ, ऐसे यज्ञरूपी आयुध-शस्त्र का धारण करनेवाला यजमान शीघ्र स्वर्गलोक में जाता है। तथा हमने सोमलता का रस पिया है, और अमृत-अमरण धर्मवाले हुये हैं / ज्योति-स्वर्ग को प्राप्त हुये हैं, तथा देवता हुये हैं, इस वास्ते तृण की तरे अराति-शत्रु, व्याधी, जरा अमर पुरुष का क्या कर सकते हैं। यह श्रुतियां देवसचा की प्रतिपादक हैं। और इन श्रुतियों का यथार्थ अर्थ करके और तिसका पूर्वपक्ष खण्डन करके भगवंतने इनका संशय दूर करा, तब यह भी माढे तीन सौ छात्रों के साथ दीक्षित भया / तिस पीछे आठमा अकंपित आया, उसके मन में भी वेद की परस्पर विरुद्ध श्रुतियों के पदों से यह संशय उत्पन्न