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________________ 466 जैनतत्त्वादर्श हुआ था कि नरकवासी जीव हैं कि नहीं ! वे परस्पर विरुद्ध श्रुतियां लिखते हैं: नारको वै एष जायते यः शूद्रानमनाति इत्यादि / इसका अर्थ:-यह ब्राह्मण नारक होवेगा जो शूद्र का अन्न खाता है / इस श्रुति से नरक सिद्ध होता है। तथा न ह वै प्रेत्य नारकाः संतीत्यादि / इस श्रुति से नरक का अभाव सिद्ध होता है। इन का अर्थ करके और पूर्वपक्ष खंडन करके भगवान्ने तिसका संशय दूर करा / तब अकंपितने भी तीन सौ छात्रों के साथ दीक्षा लीनी। तिस पीछे नवमा अचलमाता आया / तिसको भी पर. स्पर वेद की विरुद्ध श्रुतियों के पदों से पुण्य पाप है कि नहीं ? यह संशय था। सो वेद पद यह है पुरुप एवेदं नि सर्व इत्यादि / दूसरे गणधरवत् / इस से विरुद्ध पद यह है पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति, पापः पापेन कर्मणा भवति इत्यादि।
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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