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________________ 467 द्वादश परिच्छेद इस से पुण्य पाप सिद्ध होते हैं। यह संशय मी भगचान्ने दूर करा, तब यह भी तीन सौ छात्रों के साथ दीक्षित भया। तिस पीछे दशमा मैतार्य आया। उसको भी वेद की परस्पर विरुद्ध श्रुतियों से यह समय हुआ था कि, परलोक है किंवा नहीं ! वे श्रुतियां यह हैं:-" विज्ञानघन " इत्यादि प्रथम गणघरवत् अभाव कथक श्रुति जाननी / तथा स वै अयं आत्मा ज्ञानमय इत्यादि / / यह परलोक भावप्रतिपादक श्रुति जाननी / इनका तात्पर्य भगवान्ने कहा, तब मैतार्यजीने भी निःशंक हो के तीन सौ छात्रों के साथ दीक्षा लीनी / तिस पीछे ग्यारहवां प्रभास नामा गणधर आया / तिसके मन में भी वेद श्रुतियों के परस्पर विरुद्ध होने से यह संशय था कि निर्वाण है कि नहीं है ! वे श्रुतियां यह हैं: जरामयं वा एतत्सर्व याग्निहोत्रम् / इस से विरुद्ध श्रुति यह है: द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये परमपरं च तत्र परं ज्ञानमनंतं ब्रह्मेति /
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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