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________________ 464 जैनतत्त्वादर्श ___ न ह वै सशरीरस्य प्रियाऽप्रिययोरपहतिरस्ति अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशत इत्यादीनि / अर्थः-सशरीरस्य अर्थात् शरीर सहित को सुख दुःख का अभाव कदापि नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि संसारी जीव सुख दुःख से रहित नहीं होता है, और अमूर्त आत्मा को कारण के अभाव से सुख दुःख स्पर्श नहीं कर सकते हैं। इस श्रुति से बंध मोक्ष सिद्ध होते हैं / तथा तेरे मन में यह भी बात है कि, युक्ति से भी बन्ध मोक्ष सिद्ध नहीं होते हैं। इत्यादि संशय कह कर भगवान्ने तिसके पूर्वपक्षों को खण्डन करके संशय दूर करा / तब मंडिकपुत्र साढे तीन सौ विद्यार्थियों के साथ दीक्षित भया / तिस पीछे सातवां मौर्यपुत्र आया, तिसके मन में यह संशय था कि देवता हैं किंवा नहीं हैं। यह संशय परस्पर विरुद्ध श्रुतियों से हुआ है, वे श्रुतियां यह हैं: स एष यज्ञायुधी यजमानोंऽजसा स्वर्गलोकं गच्छति इत्यादि। ऐसी श्रुतियां स्वर्ग तथा देवताओं की सिद्धि करती हैं। इस से विरुद्ध श्रुति यह है
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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