________________
नवम परिच्छेद
૧૮૭
कोई दुष्टजन उपद्रव कर देवे, तब राजसभा बिना छुटकारा नहीं होता है । यथा
गंतव्यं राजकुले, द्रष्टव्या राजपूजिता लोकाः । यद्यपि न भवत्यर्थास्तथाप्यनर्था विलीयंते ॥
तथा पुत्र को परदेश के आचार, व्यवहारादि से जानकार करे, क्योंकि प्रयोजन के वश से किसी काल में देशांतर में भी जाना पड़े, तो कोई कष्ट न होवे । तथा विमाता के पुत्र के साथ विशेष उचित करे ।
६. अब सगों के साथ माता, स्त्री के स्वजन से उचित स्वजन कहते है । व्यवहार के बड़े काम में
उचित करना लिखते हैं-पिता, पक्ष के जो लोग हैं, तिन को इन स्वजनों का कोई घर तथा सदा काल सम्मान करे । तथा आप भी स्वजनों के काम में अग्रेश्वरी बने, जो स्वनन धनहीन होवे, रोगातुर होने, तिसका उद्धार करे। क्योंकि स्वजन का जो उद्धार करना है, सो तत्र से अपना ही उद्धार करना है । तथा स्वजन के परोक्ष उनकी निंदा न करे, तथा स्वजन के वैरियों से मित्राचारी न करे । स्वजनादिक से प्रीति करनी होवे, तदा शुष्क कलह, हास्यादि, वचन की लड़ाई न करे । स्वजन घर में न होवे, तो उसके घर में अकेला न जावे,